अष्टयाम सेवा पद्धति – विधि एवं नियम (ऑडियो सहित)

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
अष्टयाम सेवा पद्धति

1. अष्टयाम सेवा – मंगला

अष्टयाम सेवा मंगला दर्शन

1.1 प्रातः उत्थापन

अब भावना करें कि आपके प्रिया-प्रियतम अभी सो रहें हैं और उन्हें यह पद गाकर जगाएँ।

आजु देखि ब्रजसुन्दरी मोहन बनी केलि ।
अंस अंस बाहु दै किसोर जोर रूप रासि,
मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि ॥
नव निकुंज भ्रमर गुंज, मंजु घोष प्रेम पुंज,
गान करत मोर पिकन अपने सुर सों मेलि ।
मदन मुदित अंग अंग, बीच बीच सुरत रंग,
पल पल हरिवंश पिवत नैंन चषक झेलि ॥

अबहि नैंकु सोये हैं अरसाय ।
काम केलि अनुराग रस भरे, जागे रैंन बिहाय ॥
बार-बार सुपनेहू सूचत, सुरत रंग के भाय ।
यह सुख निरखि सखीजन प्रमुदित, नागरीदासि बलि जाय ॥

प्रात समै नव कुंज द्वार पै, ललिताजू ललित बजाई बीना ।
पौढ़े सुनत स्याम श्रीस्यामा, दंपति चतुर प्रवीन प्रवीना ॥
अति अनुराग सुहाग परस्पर, कोक-कला गुन निपुन नवीना ।
श्रीबिहारीनदासि बलि-बलि बंदिस पर, मुदित प्रान न्यौछावर कीना ॥

भोर भयै सहचरि सब आईं । यह सुख देखत करत बधाई ॥
कोउ वीना-सारंगी बजावैं । कोउ इक राग विभासहि गावैं ॥
एक चरन हित सौं सहरावै । एक वचन परिहास सुनावै ॥
उठि बैठे दोउ लाल रँगीले । बिथुरी अलक सबै अँग ढीले ॥
घूमत अरुन नयन अनियारे । भूषन-वसन न जात सम्हारे ॥
कहुँ अंजन कहुँ पीक रही फबि । कैसैं कही जात है सो छबि॥
हार-बार मिलिकै अरुझाने । निशि के चिह्न निरखि मुसिकाने॥

निरखि-निरखि निशि के चिह्ननि रोमांचित ह्वै जाहिं ।
मानौं अंकुर मैंन कै फिर उपजै तन माहिं ॥

जागौ मोहन प्यारी राधा ।
ठाढ़ीं सखी दरस के काजैं, दीजै दरस जु होय न बाधा ॥
सुनत वचन हँसि उठे जुगलवर, मरगजे बागे फबि रहे दोऊ तन।
वारत प्रानन लेत बलैया, निरखि-निरखि फूलत मन ही मन॥
रंग भरे आनन्द जम्हावत, अंस अंस धरि बाहु रहे कसि ।
जै श्री कमलनयन हित या छबि ऊपर, वारौं कोटिक भानु मधुर शशि ॥

1.2 मंगला भोग

अष्टयाम सेवा संध्या भोग

अब आप भाव करें कि आपके प्रिय-प्रियतम जागकर उठ गए हैं और आसन पर विराजमान हो गए हैं। पहले आप जल से ठाकुर जी का मुख साफ करें, फिर एक स्वच्छ कपड़े से उनके मुख को पोंछें। इसके बाद, जो भी भोग (खाना) आपने ठाकुर जी के लिए प्रेमपूर्वक बनाया है, उसे उनके समक्ष अर्पित करें। भावना करें कि ठाकुर जी प्रसन्न होकर आपका भोग स्वीकार कर रहे हैं। इस दौरान यह पद गाएँ। पद समाप्त होने के बाद और भोग ग्रहण कर लेने के पश्चात, ठाकुर जी के हाथ धुलवाएँ और फिर उन्हें पोछें।

मंगल भोग अधिक रुचिकारी ।
माखन, मिश्री, मोदक मेवा, सखियन आन धरी भरि थारी ॥
आलस बलित नैंन झपकौहें, सोहैं करतल जुत सुकुमारी ।
प्रियहिं निहोर मुख देत ग्रास पुनि, खात खवावत करत हहारी॥
गान नृत्य अरु वाद्य करन हित, सब सखी आन भईं इकठाँरी।
ललिता ललित देत मुख बीरी, (जै श्री) कमलनयन छबि पर बलिहारी ॥

1.3 मंगला आरती

अब आरती की थाली तैयार करें और प्रिया-लाल की आरती करें और नीचे दी हुई आरती गाएँ।

प्रातहि मंगल आरति कीजै ।
जुगल किशोर रूप रस माते, अद्भुत छवि नैननि भरि लीजै ॥
ललिता ललित बजावति वीना, गुन गावति सोई जीवन जीजै ।
जय श्रीरूपलाल हित मंगल जोरी, निरखि प्रान न्यौछावर कीजै॥

निरखि आरती मंगल भोर । मंगल श्यामा श्याम किशोर ॥
मंगल श्रीवृन्दावन धाम । मंगल कुंज महल अभिराम ॥
मंगल घण्टा नाद सु होत । मंगल थार मणिनु की जोत ॥
मंगल दुन्दुभि धुनि छबि छाई । मंगल सहचरि दरसन आईं ॥
मंगल बीन मृदंग बजावैं । मंगल ताल झाँझ झर लावैं ॥
मंगल सखी यूथ कर जोरैं । मंगल चँवर लियें चहुँ ओरै ॥
मंगल पुष्पावलि वरषाई। मंगल जोति सकल वन छाई ॥
जै श्री रूपलाल हित हृदय प्रकास । मंगल अद्भुत युगल विलास ॥

1.4 सुरतान्त छवि वर्णन

अब अपने प्रिया-प्रियतम की शोभा को देखें और उनके मुख को निहारते हुए नीचे दिए गए पद गाएँ।

आजु तौ जुवती तेरौ, वदन आनंद भर्यौ,
पिय के संगम के सूचत सुख चैन।
आलस बलित बोल, सुरंग रँगे कपोल,
विथकित अरुन उनींदे दोउ नैंन।।
रुचिर तिलक लेश, किरत कुसुम केश
सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न।
करुणाकर उदार, राखत कछु न सार
दसन – वसन लागत जब दैन।।
काहे कौं दुरत भीरु, पलटे प्रीतम चीरु,
बस किये श्याम सिखै सत मैंन।
गलित उरसि माल, सिथिल किंकनी जाल,
(जै श्री) हित हरिवंश लता गृह सैंन ।।

कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैन ।
दुरवत क्यौंब दुरै सुनि प्यारे, रंग में गहिले चैंन में नैन ।।
उर नख चंद्र विराने पट, अटपटे से बैन ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधापति प्रमथित मैन ।।

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