प्रसाद की महिमा: भक्त अंगद जी की कहानी

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
प्रसाद की महिमा: भक्त अंगद जी की कहानी

कभी भी ऐसा आहार ग्रहण न करें, जो भगवान को भोग न लगाया गया हो। जो भोजन भगवान को भोग लगाया गया है, वही प्रसाद रूप में ग्रहण करें। एक भक्त हुए हैं, जिनका नाम अंगद जी था। वैसे तो वे स्वभाव से पहले नास्तिक प्रवृत्ति के थे, लेकिन उनकी पत्नी भगवान की भक्त थीं। उनके मायके में संतों की सेवा होती रहती थी, और वहां उनके गुरुदेव के उपदेश सुनने को मिलते थे। विवाह के बाद जब वे अंगद जी के साथ ससुराल आईं, तो देखा कि वहां राज वैभव तो था, लेकिन न किसी संत का दर्शन संभव था, न किसी संत का आना-जाना, न भगवद् चर्चा होती थी और न ही सत्संग।

रानी की व्याकुलता और संतों का आमंत्रण

रानी की व्याकुलता और संतों का आमंत्रण

रानी बहुत व्याकुल हो गईं। उन्हें मायके में रोज संतों का उच्छिष्ट मिलता था, सद्गुरु देव भगवान के दर्शन होते रहते थे, लेकिन यहां भक्ति का कोई भी वातावरण नहीं था। हालांकि, अंगद जी की एक विशेषता थी—वे अपनी पत्नी को भगवद् भक्त मानकर बहुत श्रद्धा करते थे और उनके भक्ति मार्ग में कोई विरोध नहीं करते थे। लेकिन स्वयं न तो भक्ति का आचरण करते थे, न संत-महात्माओं के प्रति कोई श्रद्धा रखते थे, और न ही भगवान की आराधना करते थे।

काफी दिनों तक संतों के दर्शन न होने के कारण रानी अत्यंत व्याकुल हो गईं। उन्होंने अपने मायके पत्र लिखकर प्रार्थना की कि सद्गुरु देव भगवान से निवेदन करें कि कृपा करके एक बार यहां पधारें और दर्शन दें, क्योंकि मैं यहां से बाहर नहीं जा सकती और मेरे पति संतों के प्रति श्रद्धावान नहीं हैं। जब मायके के राज परिवार ने गुरुदेव से प्रार्थना की, तो वे करुणामय होने के कारण आने के लिए सहमत हो गए।

गुरुदेव के आगमन से रानी अत्यंत हर्षित हो गईं

गुरुदेव के आगमन से रानी अत्यंत हर्षित हो गईं। उन्होंने चरणामृत ग्रहण किया, आरती उतारी, भोग अर्पित किया और गुरुदेव को आसन पर विराजमान किया। फिर वे धीरे-धीरे उनके चरण दबाने लगीं। इतने में अंगद जी वहां आ गए और अपनी रानी को किसी संत के चरण पकड़े हुए देखा। यह दृश्य देखकर वे क्रोधित हो गए और संत भगवान से बिगड़ने लगे। रानी के तो होश उड़ गए! इतनी प्रार्थना के बाद गुरुदेव स्वयं पधारे थे, और अब उनके पति ही उनका अपमान कर रहे थे! लेकिन गुरुदेव ने रानी की ओर देखकर शांत रहने का संकेत दिया, फिर उठे और वहां से चले गए।

रानी की प्रतिज्ञा और अंगद जी का परिवर्तन

रानी की प्रतिज्ञा और अंगद जी का परिवर्तन

रानी ने दृढ़ संकल्प लेते हुए कहा, “अब मैं अपना जीवन नहीं रखूंगी। जब मेरे गुरुदेव भगवान का अपमान हो गया, तो न मैं तुम्हारा स्पर्श करूंगी, न तुमसे कोई वार्तालाप करूंगी, न ही तुम्हारे घर का अन्न-जल ग्रहण करूंगी। मैं अपने शरीर को नष्ट कर दूंगी, क्योंकि मेरे ही बुलाने पर मेरे गुरुदेव का अपमान हुआ।”

अंगद जी अपनी पत्नी पर अत्यंत आसक्त थे। उनकी यह प्रतिज्ञा सुनकर उनका हृदय व्याकुल हो उठा। उन्होंने भी अन्न-जल का त्याग कर दिया। जब कई दिन बीत गए, तो वे अपनी पत्नी के चरण पकड़कर बोले, “तुम जानती हो कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। कृपया मुझे बताओ कि तुम्हें कैसे प्रसन्न कर सकता हूँ?”

रानी ने कहा, “यदि तुम सच में मुझे प्रसन्न करना चाहते हो, तो हमारे गुरुदेव भगवान के चरण पकड़कर उनसे क्षमा याचना करो, उन्हें मनाकर वापस लाओ और यहाँ आकर उन्हें भोग लगवाओ। यदि वे यहाँ भोग ग्रहण कर लें, तो हम उनका उच्छिष्ट पाएंगे और हमारी दिनचर्या फिर से पूर्ववत हो जाएगी।”

गुरुदेव की कृपा और अंगद जी का हृदय परिवर्तन

गुरुदेव की कृपा और अंगद जी का हृदय परिवर्तन

अंगद जी भक्ति भाव से नहीं, बल्कि अपनी पत्नी के प्रति आसक्ति के कारण वे उनके गुरुदेव के पास गए। उन्होंने चरण पकड़कर क्षमा मांगी। संतों का स्वभाव ही करुणामय होता है—कितनी भी बार कोई उनका अपमान करे, लेकिन जब कोई सच्चे हृदय से दंडवत करता है, तो वे सहज ही कृपा कर देते हैं। गुरुदेव उनके साथ जाने के लिए मान गए।

दोनों ने मिलकर उनके चरण धोए, भोग लगाया, और फिर चरणामृत ग्रहण किया। हालांकि, अंगद जी यह सब भक्ति से नहीं, बल्कि अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए कर रहे थे। लेकिन जैसे ही गुरुदेव का चरणामृत ग्रहण किया, उनके हृदय में पश्चाताप होने लगा। वे सोचने लगे, “मैं कितना नास्तिक रहा! संतों के प्रति कितनी दुर्भावना रखता था! और देखो, ये संत कितने कृपालु हैं!”

अब उनकी बुद्धि, जो पहले विपरीत चिंतन करती थी, अनुकूल चिंतन करने लगी। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, “हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ गया। कृपया मुझे बताओ कि भक्ति कैसे करनी चाहिए?” धीरे-धीरे वे ठाकुर सेवा में सहयोग देने लगे। अब बिना भोग लगाए वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे। वर्षों से उनकी यही दिनचर्या बन गई—पहले ठाकुर जी को भोग लगाना और फिर केवल प्रसाद ही ग्रहण करना। साथ ही अंगद जी ने चार पार्षद नियुक्त कर दिए, जिनका कार्य था कि जहां कहीं भी संत दिखाई दें, उन्हें घर बुलाकर भोग लगवाएं।

अंगद जी ने जगन्नाथ जी को एक अमूल्य हीरा अर्पण किया

अंगद जी ने जगन्नाथ जी को एक अमूल्य हीरा अर्पण किया

अंगद जी बहुत वीर पुरुष थे, और राजा के भतीजे भी थे। एक बार उन्होंने किसी राजा पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त कर उसका मुकुट जीतकर ले आए। उस मुकुट में 101 हीरे जड़े थे, जिनमें से एक हीरा अत्यंत अमूल्य था। अंगद जी को इस विशेष हीरे का मूल्य और महत्व ज्ञात था। उन्होंने शेष हीरे विजय प्राप्त राजा को लौटा दिए, लेकिन वह अमूल्य हीरा अपने पास रख लिया और कहा, “यह हीरा जगन्नाथ जी के मुकुट पर जड़ेगा।”

राजा के कुछ मंत्री और विषयी स्वभाव के दरबारियों ने राजा को उकसाया, “उस हीरे की कीमत आपके पूरे खजाने से भी अधिक है। आपको इसे हर हाल में वापस लेना चाहिए!” राजा ने विनम्रता से अंगद जी से आग्रह किया, “कृपया वह हीरा हमें दे दीजिए।” लेकिन अंगद जी अडिग रहे, “नहीं, यह हीरा हमने जगन्नाथ जी को अर्पित कर दिया है।”

राजा ने रचा अंगद जी के विरुद्ध षड्यंत्र

राजा ने रचा अंगद जी के विरुद्ध षड्यंत्र

मनुष्य की बुद्धि बदलने में देर नहीं लगती। राजा की बुद्धि में भी विकार आ गया, और उसने ठान लिया कि अंगद जी को मार दिया जाए। लेकिन क्योंकि वे उसके चाचा थे, उन्हें सीधे मारना उचित नहीं लगता था, वरना राजदरबार में निंदा होगी। राजा ने एक षड्यंत्र रचा।

उसने अंगद जी की बहन, जो राजमहल की रसोई तैयार करती थी, को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। राजपरिवार में भोजन अत्यंत विश्वसनीय लोगों द्वारा ही बनाया जाता था, और अंगद जी की बहन इसी कार्य में लगी हुई थी। राजा ने उसे लालच देते हुए कहा, “तुम जितना धन चाहोगी, उतना दूंगा। बस, तुम अंगद जी के भोजन में विष मिला दो।”

राजा ने अपने सामने विष लाकर दिया और उसे भोजन में मिलवा दिया। अंगद जी को इस षड्यंत्र का कोई आभास नहीं था। जैसा उनका नियम था, उन्होंने भोजन को पहले ठाकुर जी को अर्पित किया, भोग लगाया, और फिर भोजन करने बैठे।

प्रसाद की महिमा – अंगद जी पर विष का प्रभाव विफल

प्रसाद की महिमा - अंगद जी पर विष का प्रभाव विफल

अंगद जी की बहन की बेटी, जो प्रतिदिन उनके साथ बैठकर भोजन करती थी, अचानक घर से गायब कर दी गई थी। अंगद जी ने पूछा, “बिटिया कहां है? उसे बुलाओ!” बहन ने झूठ कहा, “वह खेलने चली गई है।” अंगद जी ने दृढ़ता से कहा, “नहीं, जब तक वह नहीं आएगी, तब तक मैं भोजन नहीं करूंगा।” उनके इन शब्दों का गहरा प्रभाव उनकी बहन पर पड़ा। वह विचार करने लगी कि “जो व्यक्ति मेरी पुत्री से इतना प्रेम करता है, क्या मैं उसे विष देकर मार सकती हूँ?” अंततः उसने रोते हुए कहा, “भैया, भोजन मत ग्रहण करना!” अंगद जी चौंक गए, “क्यों?”

वह फूट-फूटकर रोने लगी, “राजा ने मुझे प्रलोभन देकर प्रेरित किया था। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई, और मैंने इस भोजन में विष मिला दिया है।” अंगद जी ने अपनी बहन से कहा, “तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मैंने यह भोजन पहले ही ठाकुर जी को अर्पित कर दिया है। यदि यह भोजन विषाक्त था, तो अब यह ठाकुर जी का प्रसाद बन चुका है। मैं इसे कैसे त्याग सकता हूँ?”

इसके बाद, अंगद जी ने संपूर्ण भोजन ग्रहण किया—यहां तक कि जूठे पात्र भी चाटकर खा लिए। परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि विष का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा! वे पूर्णतः स्वस्थ और सुरक्षित रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

प्रसाद की महिमा – निष्कर्ष

पूज्य पंडित गया प्रसाद जी महाराज कहते हैं: “अर्पित किए बिना भोजन कभी मत ग्रहण करो। जब भी भोजन पाओ, उसे ठाकुर जी का प्रसाद मानो। यदि तुम ऐसी स्थिति में हो जहाँ ठाकुर सेवा संभव नहीं है और भोजन सामने आ गया है, तो एक मिनट के लिए आँखें बंद करो, अपने इष्ट देव का स्मरण करो, प्रभु को अर्पित करो और फिर दो-चार बार नाम जपकर ग्रहण करो।”

बिना प्रभु को अर्पित किए जल भी ना पिएँ। ऐसा करने से आपकी बुद्धि शुद्ध और निर्मल हो जाएगी।

मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज अंगद जी का प्रसंग सुनाते हुए

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